Thursday 28 July 2016

उस घर के झरोखे के बाजू के ताखे पर
एक दिया जलता है -
जाने उस दिये के साथ किसका इंतज़ार कटता है |
हालाँकि रहता तो कोई नहीं है उधर
सिवाए एक विधवा के
पर विधवाओं को तो शायद सिर्फ़ आँधीरा ही नसीब होता है |
वो ना दिखती है, और ना हम उसे ढूँढते हैं
पर शायद इस दिये से उसके होने का एहसास होता है|
कभी कभी ये दिया बुझ जाता है
हवाओं से, या गली के बच्चे शैतानी कर देते हैं |
उनकी माने तो उस घर में जाना पाप है
वो औरत एक काल है |
जाने उसके माँ-बाप कहाँ हैं
हैं भी या नहीं -
सुना था उसकी एक बेटी भी है
कहीं चली गयी शायद,
या हो सकता है कोई ले गया हो;
मैं असल में नया हूँ
ज़ाय्दा नहीं मालूम मुझे
बस जब भी यहाँ चबूतरे पर बैठता हूँ
तो उस दिये को देखता हूँ|
एक दो दफ़ा कोठरी में झाँका
तो लोगों ने टोक दिया|
मेरा भी क्या वास्ता|
पर सोचता हूँ
जब भी अपनी बेटी का ब्याह करूँगा-
दामाद से एक स्टैमप पेपर पर दस्तख़त करवा लूँगा
की मेरी बेटी विधवा तो ना होगी,
वरना शादी का ख्याल तो रहने ही देता हूँ|
हाँ, इस विधवा से मिलने का काफ़ी मन तो है
वो दिखती कैसी है,
क्या हमेशा सफेद पहनती है
या उसकी हथेली की लकीरें थोड़ी ज़ाय्दा घुमावदार हैं,
पर समाज से निकले जाने का दर भी तो है |
बेबस महसूस करता हूँ, मुमकिन है
बिल्कुल उसके जैसा |
वो क्या खाती है
त्योहारों पर क्या करती है
किससे लड़ती है, किससे बातें करती है
रोती है, कब हस्ती है
दिन भर क्या करती है
कोई कुछ नही जानता -
हाँ, कोई औरत उससे मिलने आई थी
लगभग एक दो महीने पहले
या शायद उससे भी पहले- याद नहीं
आई और चली गयी
ठहरी नहीं|
जाने कौन थी| वो फिर नहीं दिखी
हो सकता है सन्नाटे में आती हो
जब कोई नहीं जगता
किसे मालूम |
पहेली सी लगती है मुझे ये विधवा-
जिस दिन ये दिया बुझ जाएगा
समझ जाउँगा वो चली गयी
या शायद नहीं रही |
ये मौहल्ले वाले बाते तो करेंगे ही,
एकाद दो तो मुझ तक उड़ कर पहुचेंगी ही
फिर कुछ लिख दूँगा
उसके जाने पर-
रोउँगा थोड़ी|
विधवा, बेबस, औरत वो है
उनका काम है रोना-
मेरा थोड़ी |

No comments:

Post a Comment