Wednesday 28 January 2015

आई जो आज फिर वो हिचकोली फागुन की
चाँद तले, ठंडी रेत के दर्पण की
वो छवि के छन्द फूटे थे उस रोज़
कुछ मेरे, कुछ तेरे अपनेपन की |
सौंधी सी, फीकी फुहार वाली हँसी
झमझमाते आँसुओं के बीच पनपती नन्ही कली
सर्द समेटे, बिखरती धूप
और ये,
उस रोज़ फागुन वाली फिर हिचकोली |
वो मंद मंद आँखो का होंठों को निमंत्रण
दर्द की मायूसी वाली खुशी की
उस दिन के उदासी की
और रात के अकेलेपन की
सनसनाती आई जो हिचकोली फागुन की फिर आज |
उस फागुन तेरा ग़ज़लों में ढल जाना
हर मंज़िल के रास्ते में तुमसे टकराना
तेरी मोर से आँखों की कथाएँ गुनगुनाना
लकीरें हाथों की हाथों में ही सिमट जाना
उस फागुन
तेरा मुझे देखकर फिर मुस्कुराना-
बेशक होगी ग़लती मेरी ही
आज फिर हिचकोली फागुन की आना |

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