Monday 1 December 2014

उस रात सड़क किनारे लेटे बेटे ने फिर माँ से बोल दिया
"माँ फिर भूक लगी है, नींद नही आती,
थोड़ा ही सही, बस कुछ खिला दो अब|
ना हो तो , यहीं खड़े होकर,
आते जाते किसी से कुछ माँग लो" |
...
माँ क्या कहती,
बाप होता तो कुछ लाने कहती,
या फिर वहीं बैठ , बेटे की भूखी शक्ल
ताकते रहती |
रात घनी थी, चूल्‍हे में लकड़ी नहीं थी,
होती भी तो क्या पकती?
हर रोज़ की तरह,
आज फिर बेटे को भूखा ही सुलाती |
उस फटे गमछे को लपेट फिर निकली वो जंगल को,
बोला उससे "रुक जा लल्ला,
रोटी को लकड़ी लाती हूँ
बैठे यहीं पर रहना तुम,
मैं झट से वापस आती हूँ " |
बैठ आधी रात को,
बीच जंगल मे, माँ
भभक भभक कर, बस खुदा से
एक रात की भूखी नींद को रोई थी |
वापस जाकर देखा,
बेटा डटा बैठा था,
एक रोटी की आस में,
सड़क किनारे, वो हर रात सोया था |
दिन के दो पैसे से, माँ ने उसे चप्पल दिलाई थी,
सोचा भरी दोपहरी, नंगे पाव सबके पीछे दौड़ता है,
तब भी बेटे ने भूख की बात,
ही दोहराई थी |
झट जला कर चूल्हा,
पुराना तवा चढ़ाया था,
मुह बेटे के फिर से,
एक रोटी का लालसा आया था |
जब तक होता गर्म तवा,
माँ ने उसे लोरी सुनाई थी,
हर बार की तरह इस बार भी,
उसे पापा की कहानी सुनाई थी |
मन ही मन, माँ ने तब भी
उसकी नींद की गुहार लगाई थी |
किस्सा हर बार से लंबा था,
पापा का जो था,
सुनते सुनते आज फिर "लल्ला"
भूखे पेट ही सोया था,
होता भी गर्म तवा कैसे
गीली लकड़ी जो वो ढूढ़ कर लाई थी |
कैसे कहती "बेटा तुझे भूखे पेट ही सोना है,
आज भी तुझे हर रोज़ के जैसे,
फिर तोड़ा और मरना है |
उस ढाबे के बाहर जो था वो भी
कुत्ता आज खा गया था,
और हर रोज़ की तरह,
वो चिड़िया का खाना घर भी खाली था |
माँ ने भी, उस कंकाड़ि सड़क पे,
बिस्तरा डाल लिया ,
फेर बेटे से मूह,
"लाचारी का आँसू" आज फिर उसने छुपा लिया |

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