Saturday 22 November 2014

*जिस्म फ़िरोशी*
उस रोज़ बाज़ार में देह की तमाशा लगी थी,
बगल कोने में 'पारो' भी मुह छुपाए खड़ी थी-
लाल चमकीला थोड़ा धनी सा चूनर और उँची विदेशी छपल्लों में,...
करधनी स्नहारी चटक रही थी, आधी रात की रोशनी में |
होठों पर फीकी गुलाबी सी झूठी मुस्कान और आँखो के काले घेरो मे एक छुपा सा अरमान लिए |

हर शाम जैसे अंधेरी होती थी, वो गली चमक सी उठती थी,
हर किसी रोज़ किसी नादान जिस्म की बिक्री होती थी |
कभी बड़े घोरों की तो कभी किसी बेचारे के बेटी की
पर बोली सबकी लगती थी |
जो पारो थी, वो भोली थी पर इरादों की पक्की थी
भाग निकली थी जो पिछली रात, घेरे से पर ना निकली थी
और कठिन थी मुश्किल अब तो
सारी आँखें चौकन्नी थीं|
जिस्म फ़रोशी का ये दलदल काला ज़हरीला था
डस ले जो तो मात किसी को ना देता था |
पारो तो चाचा के संग शहर घूमने को आई थी
बस रोज़ एक उन्ही के दोस्त के संग
दो चुस्की चाय की लगाई थी
फिर जब उसकी आँख खुली तो वो इस खंडहर में
खुद के सहमा पाई थी |
उधर ना चाचा था, ना दोस्त |
ना अम्मा थी ना था बाबा |
बस हर रात कोई हवसी उसको अधमरा अगली रात के लिए छोड़ जाता था |
ना किसी दिन का पता चलता था
ना किसी का टेलिफोन मिलता था
बस कुछ पैसे थे, जो भी उसके ना होते थे |
समय गुजरते कुछ दोस्त बने थे
जिनके हर रोज़ नये नाम होते थे|
किसी रोज़ कालकोठरी में, तो किसी रात पाँच सितारा में
किसी रोज़ कुछ कम में, किसी रोज़ कुछ ज़यादा में
पर जिस्म तो हर रोज़ उसका झूठा होता था |
किससे कहती?
उन दीवारों से, या दलालों से?
दर्द छोड़ के वहाँ कुछ भी ना उसका अपना था |
कई रात वो, बाबा की यादों में रोई थी,
कभी अम्मा की रोटी तो गाँव की सखियों वाली खोक्ली सुरंग
कभी अपने सपने तो कभी बाबा का कहना की पारो विदेश जाएगी
कभी दादी की कहानी तो कभी गुडियों वाली नानी
कभी उसका कहानी वाला मसीहा तो कभी गाँव का बताशा
हर याद उसे तड़पाती थी|
उस रात, विदेशी आए थे
उसे अपने देश ले जाने को |
उसे उसके गाँव से मीलों दूर और तड़पने को |
नशे में ना तो वो चल पाते ना पत्तियाँ कड़क गिन पाते थे
बस उंगली रख कर किसी जिस्म को अपना माल ठहराते थे |
आज उंगली पारो पर उठी |
बाई जी खुश हुई, पत्तियाँ जो उनकी हुईं |
बोला जा पारो समान बाँध ले, तुझे विदेश घूमने जाना है,
थोड़ा पाउडर और पोत ले इनका मान तुझको लुभाना है |
वो रोई, गिड़गिडाई, बाई माँ से कहती रही मुझको
गाँव से दूर नहीं जाना है |
अम्मा आईगी, चाचा आएगा |
पर किसने उसकी सुनी थी |
उस रात कोठे पे बैठ वो सिसक सिसक कर रोई थी
अपने अम्मा बाबा से मिलने को
अपने भाई को गले लगाने को
सखियों संग खेतों से गन्ने चुराने को
मास्टर जी की डाँट को
और एक सुनहेरी शाम को|
जाते जाते लिख गयी वो पन्ने पर-
"अम्मा ये रातें बड़ी दर्दनाक होती हैं,
बाबा से कहना मुझे ले जाने को
वापस गाँव की पीपल पर झूला झुलाने को,
भाई के संग मेला घूमने को
वो दो आने वाली टाफी दिलाने को|
अम्मा इनसे कह दो ना किसी रात मुझे लॉरी गाकर सुना दे
बस एक रात तो मुझे चैन की नींद सुला दें|"
पर वो रात आखरी थी |
फिर पारो नहीं दिखी |
किसी ने ढूँढा भी नहीं, कौन पूछता ?
को कल वाली सुमित्रा या आज वाली पिंकी ?
वो सब भी तो किसी रोज़ की तो पारो थीं |
वो भी तो नुमाइश-आए-जिस्म में बिकने वालीं थीं
किसी रोज़ वो भी पारो कहलाने वाली थी|
बस कुछ रह जाता था इन सभी पारो का
तो वो थी सिसकियाँ और कुछ आहटें, जो उस काली कोठारी में ही दब जाती थी,
किसी गाँव की कोई लाडो, फिर पारो बन जाती थी |

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